भारत में कुल 12 ज्योतिर्लिंग हैं जिनके बारे में कहा जाता है कि इनकी उत्पत्ति अपने आप हुई है। भारत के लगभग सभी मंदिरों में शिवलिंग की स्थापना की गयी है। भक्त लोग बहुत श्रद्धा भाव से शिवलिंग की पूजा करते हैं। इन दिनों सावन का पावन महीना चल रहा है और आज के इस पोस्ट में हम आपको शिवलिंग से जुड़ी कुछ ख़ास बातें बताने जा रहे हैं। शिव के निराकार (अर्थात जिसका कोई आकार न हो) रूप को लिंग कहते हैं। वहीं, भगवान शंकर, शिव, भोलेनाथ, महादेव इत्यादि मानकर उनके पूरे रूप को पूजा जाता है। शिव के लिंग की पूजा मनुष्य आदि काल से करते आ रहा है। क्या आप जानते हैं हिंदू धर्म में इतने देव होने के बावजूद केवल शिव के लिंग को ही क्यों पूजा जाता है? यदि नहीं, तो आज के इस पोस्ट में हम आपको इस सवाल का जवाब देने की कोशिश करेंगे। दरअसल, शिवलिंग को लेकर अलग-अलग मान्यताएं और कथाएं मौजूद हैं।
बता दें, हमारे ब्रह्माण्ड की आकृति को शिवलिंग कहा जाता है। यदि धार्मिक भाषा में हम आपको समझाने की कोशिश करें तो शिवलिंग माता पार्वती और शिवजी का आदि अनादि एकल रूप है। साथ ही इसे पुरुष और प्रकृति की समानता का प्रतीक भी माना गया है। शिवलिंग हमें यह बताने की कोशिश करता है कि इस संसार में केवल पुरुष और स्त्री का ही वर्चस्व नहीं है बल्कि ये दोनों एक-दूसरे के पूरक और समान माने गए हैं।
वेदों में शिवलिंग का पूर्ण उल्लेख देखने को मिलता है। इसके अनुसार ‘लिंग’ शब्द का तात्पर्य सूक्ष्म शरीर से है। इस सूक्ष्म शरीर का निर्माण 12 तत्वों से बनकर हुआ है, जिसमें मन, बुद्धि, पांच ज्ञानेंद्रियां, पांच कर्मेंद्रियां और पांच वायु आते हैं। वायु पुराण में उल्लेख है कि प्रलयकाल में संपूर्ण ब्रह्मांड जिसमें लीन हो जाता है और फिर से सृष्टिकाल में जिससे प्रकट होता है, उसे ‘लिंग’ के नाम से जाना जाता है।
लेकिन शिव पुराण में शिवलिंग को लेकर जो संदर्भ मिलता है वह इसके बिलकुल विपरीत है। शिव पुराण के अनुसार शिव ही संपूर्ण संसार के उत्पत्ति के कारण और परब्रह्मा हैं। इसमें कहा गया है कि महादेव ही पूर्ण पुरुष और निराकार ब्रह्मा हैं। शिव के लिंग की पूजा इसी के प्रतीकात्मक रूप में होती है। एक बार भगवान विष्णु और ब्रह्मा के बीच इस बात को लेकर बहस हो गयी थी कि दोनों में से श्रेष्ठ कौन है। दोनों इस बात हल निकालने के लिए शिवजी के पास गए। जिसके बाद शिवजी ने एक दिव्य लिंग को प्रकट करके ब्रह्मा और विष्णु को उसके आदि और अंत का पता लगाने के लिए कहा। इसी लिंग का आदी और अंत ढूंढने के दौरान विष्णु और ब्रह्मा शिव के परब्रह्मा स्वरुप से परिचित हुए। तभी से शिव को परब्रह्मा मानते हुए उनके प्रतीक के रूप में लिंग को पूजा जाने लगा।
इसे लेकर एक पौराणिक कथा भी मौजूद है. कहा जाता है कि समुद्र मंथन के समय जहां सब देवता अमृत चाहते थे वहीं भगवान शिव के हिस्से में भयंकर हलाहल विष आया। शिवजी ने बड़ी सहजता के साथ विश को ग्रहण किया जिसके बाद उनका नाम ‘नीलकंठ’ भी पड़ा। समुद्र मंथन में निकले विष को धारण करने से शिवजी के शरीर का दाह बढ़ गया और उस समय से दाह के शमन के लिए शिवलिंग पर जल चढ़ाने की परंपरा शुरू हुई और आजतक यह परंपरा चली आ रही है।
जब हड़प्पा और मोहनजोदाड़ो की खुदाई हुई तब वहां से पत्थर के बने लिंग और योनी मिले। इसी खुदाई के दौरान वहां एक ऐसी मूर्ति मिली जिसके गर्भ से पौधा निकल रहा था। यह इस बात की तरफ इशारा करता था कि आरंभिक सभ्यता के लोग प्रकृति के पूजक थे। उनका मानना था कि लिंग और योनी से ही ब्रह्मांड बना है। तभी से लोग लिंग की पूजा करने लगे।
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