यह वक्त था 2004 में दीवाली का। दुनिया रौशनी का त्योहार दीवाली मना रही थी। इसी रौशनी के त्योहार में एक लड़के के आखों की रौशनी चली गई। नाम था इनका दीपक। आंखों से रौशनी जरूर चली गई, मगर इनके मन का उजाला कम नहीं हुआ। इनके जज्बे का जो प्रकाश था, वह कम नहीं हुआ। इसी उजाले ने जिंदगी को आगे बढ़ने की राह दिखाई। आज ब्लाइंड क्रिकेट टीम में ऑलराउंडर के तौर पर दीपक मलिक कई मैच जीत चुके हैं और ब्लाइंड क्रिकेट के चैंपियन भी बने हुए हैं।
दरअसल, हुआ यह था कि एक रॉकेट दीपक की दाईं आंख से टकरा गया था। चिंगारी का असर उनकी बाईं आंख पर भी हुआ था। आंखों में असहनीय दर्द महसूस हुआ था। अस्पताल गये, आंखों का इलाज हुआ, मगर जब आंखें खोलीं तो कुछ दिख नहीं रहा था। देखने के लिए कुछ था तो बस अंधेरा। तब उम्र उनकी केवल नौ साल की ही थी। खुद पे नियंत्रण नहीं रहा। जोर-जोर से उन्होंने रोना शुरू कर दिया। दीपक बताते हैं कि उन्हें इस बात की तकलीफ नहीं हो रही थी कि वे अब देख नहीं पाएंगे, उन्हें खल यह रहा था कि अब वे क्रिकेट नहीं खेल पाएंगे।
दीपक के मुताबिक जब वे छः साल के थे, तो उस वक्त कबड्डी और कुश्ती ही उनके गांव के लोगों की पसंद हुआ करते थे, लेकिन उन्हें तो केवल क्रिकेट खेलना ही पसंद था। उनके चाचा और ताऊ कुश्ती को लेकर कहते थे कि हरियाणा के मर्दों का असली खेल तो यही है। क्रिकेट को वे शहरी खेल बताया करते थे। वे यह भी कहते थे कि क्रिकेट खेलने में भला क्या रखा है? दीपक कहते हैं कि इसके बावजूद उनका क्रिकेट के प्रति जुनून खत्म नहीं होता था। क्रिकेटर बनने का ही सपना उन्होंने बचपन से अपने में संजो रखा था। सुबह उठकर मुंह धोते ही क्रिकेट खेलने के लिए वे गली में दौड़ लगा दिया करते थे। सभी दोस्तों के नाम पुकारते हुए दौड़ते थे और उन्हें लेकर खेल के मैदान में पहुंच जाते थे।
गांव में क्रिकेट को ज्यादा पसंद नहीं किया जाता था, इसलिए कोई अच्छी बैट या बॉल तक उनके पास नहीं करता था। फिर भी क्रिकेट के प्रति दीवानगी इस कदर थी कि जब तक बड़े डांटें नहीं, तब तक खेलना रुकता ही नहीं था। बचपन से ही सचिन और धोनी को खेलते देख रहे थे और उनकी तरह ही बनने की चाहत भी थी। उन्हीं के स्टाइल तक को फॉलो कर रहे थे। फिर अचानक 2004 की दीवाली की रात ने सब कुछ बदल दिया। रॉकेट छोड़ते वक्त यह आंख पर यह जा लगा और फिर उनकी आंखों की रौशनी हमेशा के लिए चली गई। अस्पताल से लौट कर आये तो पूरा वक्त इनका अपने कमरे में ही बीतने लगा। देख नहीं पाने के कारण बिना सहारे के घर में भी चल पाना तक मुश्किल हो गया था।
आंखों की रौशनी जाने के साथ धीरे-धीरे दोस्त भी चले गये। डिप्रेशन के कारण दो वर्षों तक दीपक स्कूल भी नहीं जा सके। बाद में घर वाले सोनीपत से दिल्ली आ गये। यहां वर्ष 2008 में एक ब्लाइंड स्कूल में दीपक को पहली में दाखिला मिल गया। ब्रेल लिपी में पहले से पढ़ी गई चीजों को दोबारा पढ़ना सीखा। इससे फिर से जीने का हौसला जाग गया। अपना काम दीपक ने खुद से करना शुरू कर दिया। ब्लाइंड क्रिकेट के बारे में जानकारी हासिल की। अपने सर से अनुरोध किया। थोड़ी मशक्कत के बाद वे मान गये और उन्हें प्रशिक्षण देना भी शुरू कर दिया।
दीपक के मुताबिक ब्रेल की तरह वे क्रिकेट भी सीखने लगे। सारी तकनीकें सीखने के बाद ब्लाइंड क्रिकेट टीम में आखिरकार दीपक चुन ही लिये गये। वर्ष 2014 और 2018 के विश्व कप में इनकी टीम पाकिस्तान को हराकर खिताब जीत चुकी है। साथ ही वर्ष 2012 और 2017 का भी विश्व कप इनकी टीम ने जीता है। दीपक कहते हैं कि उनकी आंखों की रोशनी शायद इसलिए गई कि उन्हें नई राह दिखे और अपने जुनून को वे हकीकत में बदलते हुए देख पाएं।
हिसार, हरियाणा – हरियाणा के हिसार जिले के भाटोल जाटान गांव की कीर्ति बामल, जो…
मध्य प्रदेश, जिसे हम गर्व से Heart of Incredible India कहते हैं, अब सिर्फ घूमने…
अगर आप भारतीय रेलवे की ऑनलाइन टिकट बुकिंग सेवा IRCTC का इस्तेमाल करते हैं, तो…
Facts About Chandratal Lake In Hindi: भारत में हज़ारों की संख्या में घूमने की जगहें…
Blood Sugar Control Kaise Kare: आज की भागदौड़ भरी ज़िंदगी में कई बीमारियों को समाज…
Gond Katira Khane Ke Fayde: आयुर्वेद विज्ञान से भी हज़ारों साल पुराना है। प्राचीन ग्रंथों…