जो हाथ 70 साल की उम्र में भी गोबर पाथ रहे थे। जो हाथ इतनी उम्र हो जाने पर भी खेतों की गुड़ाई में लगे थे। जो हाथ जिंदगी के सात दशक बीत जाने के बाद भी लकड़ियां काट रहे थे और साथ में बाल-बच्चों को भी संभाल रहे थे, उन्हीं हाथों ने जब 70 की उम्र में ब्रश थामा, तो इन कंपकंपाती हाथों से ऐसी पेंटिंग्स बन कर निकलीं कि दुनिया में छा गईं। छा गईं ये पेंटिंग्स हर उस जगह पर जहां हुनर के कद्रदान रहते हैं। लोकप्रिय हो गईं ये पेंटिंग्स हर उस जगह पर, जहां-जहां इनकी प्रदर्शनी लगाई गई।
शुरुआत में ब्रश थामा तो मध्य प्रदेश के उमरिया जिले के गुमनाम गांव की रहने वाली बैगा कलाकार जोधईया बाई के हाथ जरूर कांपे, क्योंकि उम्र 70 साल की जो हो चुकी थी। नजरें भी थरथराईं, क्योंकि इस उम्र में यह लाजमी था, लेकिन इन सबके बावजूद हुनर निखरकर सामने आया, क्योंकि शरीर की उम्र जरूर सात दशक के पार जा रही थी, लेकिन मन तो अभी भी जवां ही था। कर दी इन्होंने पेंटिंग की शुरुआत और धीरे-धीरे 10 वर्षों के अंदर इतनी अच्छी पेंटिंग्स इन्होंने बनानी शुरू कर दीं कि मिलान और पेरिस जैसे शहरों में भी इनकी प्रदर्शनी ने धूूम मचा कर रख दिया।
जिंदगी बड़ी संघर्ष में बीती इनकी। गरीबी का साया हमेशा इन्हें ओढ़े रहा। बस खा-पी लेती थीं। पेट अंतिम बार कब भरा, याद ही नहीं था। बच्चे भी बहुत छोटे थे। दिनभर घर के बाहर काम में बीत जाता था। एकदम घने जंगलों में लकड़ी काटने जाती थीं। ऐसे जंगलों में जाती थीं, जहां शेर-चीते और भालुओं के हमला करने की खबरें अक्सर सुनने को मिलती रहती थीं। रात होने से पहले किसी तरह से लौट आना जरूरी होता था, नहीं तो जान की खैर नहीं। जब घर से कुल्हाड़ी लेकर सुबह निकलती थीं, तो यह मालूम नहीं होता था कि लौटकर बच्चों का मुंह दोबारा देख पाएंगी या नहीं। लकड़ी काटते वक्त भी ध्यान रखना पड़ता था कि जरा सी भी आहट होने पर तुरंत सीधी होकर कुल्हाड़ी से जानवरों को डराने के लिए तैयार हो जाएं।
फिर एक दिन बैगा आर्ट सीखने का विचार इनके मन में आया। उन्होंने कलाकार आशीष स्वामी से प्रशिक्षण लेना शुरू किया, जिनकी पढ़ाई शांतिनिकेतन से हुई थी और जो बैगा आर्ट को दुनिया के समक्ष लाने के लिए यहां एक स्टूडियो चला रहे थे। जोधईया बाई ने इन्हीं से यह कला सीखी। इनके स्टूडियो में वे काम भी कर रही हैं। साथ ही अपना गुरु भी वे आशीष स्वामी को ही मानती हैं। सीखने के दिनों को याद करते हुए जोधईया को मीडिया में बताते हुए सुना गया कि लकड़ियां काट-काट कर तो उनकी कमर झुक गई थी। ब्रश तक कभी देखा नहीं था। धीरे-धीरे सीखना शुरू किया। गोबर पर काम किया। फिर भी मिट्टी पर भी। कैनवास धीरे-धीरे पकड़ा और फिर रंग तक पहुंचीं। इस तरह से जो सोच कहती थी कि फिर से जंगल में लौटना पड़ेगा, वह सोच अब दूर होने लगी और मन में यह भरोसा जाग उठा कि अब यही रंग उनकी जिंदगी बन गये हैं।
इतनी उम्र हो जाने पर भी बैगा कला को सीखने और जादुई कलाकार के रूप में उभरने की वजह से जोधईया की तारीफ भी खूब होती है, लेकिन उन्हें अपनी तारीफ से कोई मतलब नहीं दिखता। आज इनकी उम्र 80 के पार पहुंच गई है। अब भी एक-दो घंटे काम करती हैं। फिर टहलती हैं। फिर काम करती हैं। नजरें कमजोर हुई हैं, मगर जुनून तो अब भी बरकरार है। पेंटिंग्स जोधईया उन्हीं की बनाती हैं, जिन्हें वे देखती हैं। उनके अनुसार पेड़-पौधे, भालू, बाघ, शेर आदि उनके भगवान हैं, जिन्हें वे पूजती हैं और उन्हीं को अपनी पेंटिंग्स में जगह भी देती हैं। जोधईया की पेंटिंग्स आज इटली के मिलान और फ्रांस के पेरिस की भी खूबसूरती बढ़ा रही हैं। जोधईया इस बात का जीता-जागता सबूत हैं कि मन के हारे हार है। मन के जीते जीत।
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