महाराष्ट्र का बीड जिला अक्सर सूखे की चपेट में आ जाता है। इसी क्रम में यहां जब सूखा पड़ा तो एक जल्लाद ने यहां ऐसा काम किया, जिसके लिए हर ओर उसकी तारीफ होने लगी। इस जल्लाद ने यहां जब बिना पानी के मरती हुई गायों को देखा तो उसने अपना खानदानी पेशा ही छोड़ दिया और गायों को पालना शुरू कर दिया। इस जल्लाद का नाम है शब्बीर सैयद। हालांकि इनके काम की वजह से अब पूरा जिला इन्हें गौ सेवक मामू के नाम से जानता है।
शब्बीर बताते हैं कि कई पीढ़ियों से उनके यहां बूचड़खाना चलता आ रहा था। अब्बू यही काम करते थे। एक दिन एक गाय बिना छुड़ा लगाए मर गई। जब वह मर रही थी तो अब्बू की ओर उसकी आंखें बड़ी उम्मीद लगाए ताक रही थीं। सूखे की वजह से इस गाय ने दम तोड़ दिया था। उसी दिन से उनके अब्बू ने फिर छूरे को हाथ नहीं लगाया। दो गायों से जो शुरुआत हुई थी, अब वह 170 गांवों तक पहुंच गई है।
शब्बीर बताते हैं कि बचपन से ही उनके पिता बूचड़खाने वाले काम में उन्हें अपने साथ रखते थे, ताकि बड़े होकर वे भी इस जिम्मेवारी को संभाल सकें। जानवर को कटते देखकर शब्बीर के मुताबिक उनका दिल मसोस जाता था। हालांकि, 70 के दशक में अब्बू ने एक दिन खुद से इस काम को छोड़ दिया। एक कसाई दोस्त से उन्होंने दो गाय खरीदी। शब्बीर कहते हैं कि उनके अब्बू ने ठान लिया था कि चाहे कोई कितना भी हंसे, कितना भी मजाक उड़ाए, अब वे गायों को पालेंगे। इसके बाद शब्बीर ने अपने अब्बू के साथ मिलकर गौशाला में काम शुरू कर दिया। गायों को दुहने से लेकर बीमार पड़ने पर उन्हें मरहम लगाने तक का काम वे करते थे।
गायों के बच्चों की देखभाल भी वे करते थे। इस तरीके से गायों की संख्या यहां बढ़ती चली गई। शुरुआत में जो गाय यहां थीं, वे बूढ़ी और बीमार थीं। ऐसे में उनसे दूध नहीं मिल पाता था। लोग बीमार बछड़ों को भी सड़क पर मरने के लिए छोड़ जाया करते थे। अब्बू से यह देखा नहीं जाता था। वे बछड़ों को साथ ले आते थे और ठीक करने के बाद ही उन्हें वापस छोड़ते थे। शब्बीर अपने अब्बू से मिली इस विरासत को बखूबी संभाल रहे हैं। सफेद कुर्ता पायजामा वे हमेशा पहनते हैं। गायों की सानी-पानी दिन भर उन्हें करते देखा जा सकता है।
बीड जैसी जगह पर, जहां किसी बच्चे की देखभाल करना बहुत ही परिश्रम भरा होता है, वहां वे इस काम को बखूबी अंजाम दे रहे हैं। यह एक ऐसी जगह है, जहां कब बहुत ही अच्छी बारिश हुई थी, किसी को भी गांव में याद नहीं है। फसलें तो यहां उग ही नहीं पातीं। चारा भी बहुत महंगा है। ऐसे में लोगों के पास अपने पशुओं को बेचने या फिर उन्हें बूचड़खाने में डालने के अलावा कोई चारा नहीं रहता है।
सभी बताते हैं कि एक बार उन्होंने किसी को यह कहते सुना कि इंसानों के खाने के लिए तो है नहीं, फिर इन गायों को कौन खिलाए? इनके लिए पानी कहां से लाएं? शब्बीर ने यह सुनकर उस व्यक्ति से गायों को खरीद लिया था और अपने घर ले आए थे। आज शब्बीर के साथ उनका पूरा परिवार दिनभर गायों की सानी-पानी, दूध दुहने और उनकी देखभाल में लगा रहता है। गोबर से बने खाद बेचकर जो कमाई होती है, उसी से इनका गुजारा चलता है और उसी से इनकी गौशाला भी चलती है। शब्बीर कहते हैं कि इससे 13 लोगों का परिवार चलाना तो आसान नहीं है, मगर लोगों की मदद से सब ठीक से चल रहा है।
शब्बीर बताते हैं कि यहां हमेशा सूखा पड़ता है। वर्ष 2010 में तो बहुत ही भयानक सूखा पड़ा था। तब एक के बाद एक 12 गायों की मौत हो गई थी। वे एकदम सदमे में चले गए थे। उन्हें ऐसा लग रहा था जैसे घर के बच्चे ही चले गए हों। फिर उन्होंने अपनी ही जमीन पर चारा उगाना किसी तरह से शुरू कर दिया। पूरा परिवार मिलकर गाय-बैल की देखभाल करता है। यदि कभी जरूरत पर जाए और किसी बैल को बेचना भी पड़े तो शब्बीर के मुताबिक वे खरीदने वाले से यह लिखवा लेते हैं कि बैल यदि कभी बीमार पड़ जाता है तो वे उसे लौटा देंगे। वे बूढ़े-बीमार बैल की भी अच्छी कीमत देते हैं, ताकि वे सुरक्षित रहें।
शब्बीर को बीते साल उनकी सेवा के लिए पद्मश्री से भी सम्मानित किया गया है।
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