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16 Sanskar in Hindi: वैसे तो हमारे देश में कई सारे धर्म और जाति के लोग रहते हैं मगर मुख्य रूप से भारत एक हिंदू प्रधान देश है और यहां पर हिंदू धर्म ही सर्वप्रमुख है। हिंदू धर्म की प्राचीनता एवं विशालता के कारण ही उसे ‘सनातन धर्म’ भी कहा जाता है। सनातन अथवा हिंदू धर्म की संस्कृति संस्कारों पर ही आधारित है। प्राचीन समय से ही हमारे ऋषि-मुनियों ने मानव जीवन को पवित्र एवं मर्यादित बनाने के लिये संस्कारों का अविष्कार किया। धार्मिक ही नहीं वैज्ञानिक दृष्टि से भी इन संस्कारों का हमारे जीवन में विशेष महत्व है। भारतीय संस्कृति की महानता में इन संस्कारों का बहुत योगदान है। आपको बता दें कि शास्त्रों के अनुसार इस धर्म में कुल पवित्र सोलह संस्कार संपन्न किए जाते हैं। हिंदू धर्म में व्यक्ति के जन्म से लेकर मृत्यु तक 16 कर्म अनिवार्य बताए गए हैं, जिन्हें 16 संस्कार कहा जाता है। इनमें से हर एक संस्कार एक निश्चित समय पर किया जाता है।
आपकी जानकारी के लिए बता दें कि कुछ संस्कार तो शिशु के जन्म से पूर्व ही कर लिए जाते हैं। कुछ जन्म के समय पर और कुछ बाद में। तो चलिये जानते हैं उन सभी 16 संस्कारों के बारे में जो किसी भी व्यक्ति को उसके जन्म से ही देना शुरू कर दिया जाता है। सबसे पहले तो आपको जान लेना चाहिए कि इन सभी सोलह संस्कारों का उल्लेख गृह्य सूत्र में मिलता है। यह सोलह संस्कार इस प्रकार हैं- गर्भाधान संस्कार, पुंसवन संस्कार, सीमंतोन्नयन संस्कार, जातकर्म, नामकरण संस्कार, अन्नप्राशन संस्कार, निष्क्रमण, मुंडन संस्कार, विद्यारंभ संस्कार, कर्णवेध संस्कार, उपनयन/यज्ञोपवित संस्कार, वेदांरभ संस्कार, केशांत संस्कार, समावर्तन संस्कार, विवाह संस्कार, अंत्येष्टि संस्कार।
शास्त्रों में बताए गए कुल सोलह संस्कारों में गर्भाधान संस्कार सबसे पहले आता है। गृहस्थ जीवन में प्रवेश के उपरान्त प्रथम कर्तव्य के रूप में इस संस्कार को मान्यता दी गई है। गृहस्त जीवन का प्रमुख उद्देश्य श्रेष्ठ सन्तानोत्पत्ति है। उत्तम संतति की इच्छा रखने वाले माता-पिता को गर्भाधान से पूर्व अपने तन और मन की पवित्रता के लिये यह संस्कार करना चाहिए। दैवी जगत से शिशु की प्रगाढ़ता बढ़े तथा ब्रह्माजी की सृष्टि से वह अच्छी तरह परिचित होकर दीर्घकाल तक धर्म और मर्यादा की रक्षा करते हुए इस लोक का भोग करे यही इस संस्कार का मुख्य उद्देश्य है।
दूसरा संस्कार है पुंसवन संस्कार, यह संस्कार गर्भधारण के दो-तीन महीने बाद किया जाता है। मां को अपने गर्भस्थ शिशु की ठीक से देखभाल करने योग्य बनाने के लिए यह संस्कार किया जाता है। पुंसवन संस्कार के दो प्रमुख लाभ- पुत्र प्राप्ति और स्वस्थ, सुंदर गुणवान संतान है।
सीमन्तोन्नयन संस्कार को सीमन्तकरण अथवा सीमन्त संस्कार भी कहते हैं। सीमन्तोन्नयन का अभिप्राय है सौभाग्य संपन्न होना। गर्भपात रोकने के साथ-साथ गर्भस्थ शिशु एवं उसकी माता की रक्षा करना भी इस संस्कार का मुख्य उद्देश्य है। इस संस्कार के माध्यम से गर्भिणी स्त्री का मन प्रसन्न रखने के लिये सौभाग्यवती स्त्रियां गर्भवती की मांग भरती हैं। यह संस्कार गर्भ धारण के छठे अथवा आठवें महीने में होता है।
जिस पल शिशु का जन्म होता है उसी क्षण उसे इस संस्कार को धारण कर लेने से गर्भस्त्रावजन्य संबंधी सभी दोष दूर हो जाते हैं। नाल छेदन के पूर्व नवजात शिशु को सोने की चम्मच या अनामिका अंगुली से शहद और घी चटाया जाता है। घी आयु बढ़ाने वाला तथा वात व पित्तनाशक है और शहद कफनाशक है। सोने की चम्मच से शिशु को घी व शहद चटाने से त्रिदोष का नाश होता है। इसके बाद माता बालक को स्तनपान कराती है।
इसके बाद अगला संस्कार होता है नामकरण संस्कार। जैसा कि इसके नाम से ही विदित होता है कि इसमें बालक का नाम रखा जाता है। शिशु के जन्म के बाद 11वें दिन नामकरण संस्कार किया जाता है। इसमें ज्योतिष शास्त्र के अनुसार बच्चे का नाम तय किया जाता है। बहुत से लोग अपने बच्चे का नाम कुछ भी रख देते हैं जो कि गलत है। उसकी मानसिकता और उसके भविष्य पर इसका असर पड़ता है। जैसे अच्छे कपड़े पहनने से व्यक्तित्व में निखार आता है, उसी तरह अच्छा और सारगर्भित नाम रखने से संपूर्ण जीवन पर उसका प्रभाव पड़ता है।
इस संस्कार में शिशु को सूर्य तथा चन्द्रमा की ज्योति दिखाने का विधान है। जन्म के चौथे महीने इस संस्कार को करने का विधान है। भगवान भास्कर के तेज तथा चन्द्रमा की शीतलता से शिशु को अवगत कराना ही इसका उद्देश्य है। इसके पीछे मनीषियों की शिशु को तेजस्वी तथा विनम्र बनाने की परिकल्पना होती है। उस दिन देवी-देवताओं के दर्शन तथा उनसे शिशु के दीर्घ एवं यशस्वी जीवन के लिये आशीर्वाद ग्रहण किया जाता है। इस संस्कार का तात्पर्य यही है कि शिशु समाज के सम्पर्क में आकर सामाजिक परिस्थितियों से अवगत हो।
अन्नप्राशन का स्पष्ट अर्थ है कि शिशु जो अब तक पेय पदार्थो विशेषकर दूध पर आधारित था अब अन्न जिसे शास्त्रों में प्राण कहा गया है उसको ग्रहण कर शारीरिक व मानसिक रूप से अपने को बलवान व प्रबुद्ध बनाए। तन और मन को सुदृढ़ बनाने में अन्न का सर्वाधिक योगदान है। जब शिशु 6-7 माह का हो जाता है और उसके दांत निकलने लगते हैं तब पाचनशक्ति तेज होने लगती है। तब यह संस्कार किया जाता है।
इसके बाद आता हैं मुंडन संस्कार जिसमें शिशु की उम्र के पहले वर्ष के अंत में या फिर तीसरे या पांचवें या फिर सात वर्ष पूरे हो जाने पर बच्चे के बाल उतारे जाते हैं, जिसे वपन क्रिया संस्कार, मुंडन संस्कार या चूड़ाकर्म संस्कार कहा जाता है। इस सारी प्रक्रिया के बाद शिशु के सिर पर दही-मक्खन लगाकर स्नान करवाया जाता है व अन्य मांगलिक क्रियाएं की जाती हैं। धर्माचार्यों के अनुसार इस संस्कार का उद्देश्य शिशु का बल, आयु व तेज की वृद्धि करना है।
कर्णवेध संस्कार का अर्थ होता है कान को छेदना। यह संस्कार जन्म के छह माह बाद से लेकर पांच वर्ष की आयु के बीच किया जाता था। माना जाता है कि ऐसा करने से सूर्य की किरणें कानों के छेदों से होकर बालक-बालिका को पवित्र करती हैं और तेज संपन्न बनाती हैं।
शास्त्रों में बताया गया है कि इस संस्कार के द्वारा ब्राह्मण, क्षत्रिय व वैश्य का दूसरा जन्म होता है। बालक को विधिवत यज्ञोपवित (जनेऊ) धारण करना इस संस्कार का मुख्य उद्देश्य है। जनेऊ में तीन सूत्र होते हैं जो कि त्रिदेव यानी कि ब्रह्मा, विष्णु, महेश के प्रतीक माने जाते हैं। इस संस्कार के द्वारा बालक को गायत्री जाप, वेदों का अध्ययन आदि करने का अधिकार प्राप्त होता है।
जब शिशु की आयु शिक्षा ग्रहण करने योग्य हो जाए तो उसका विद्यारंभ संस्कार कराया जाता है। इसमें समारोह के जरिये बालक में अध्ययन का उत्साह पैदा होता है वहीं दूसरी तरफ अभिभावकों, शिक्षकों को भी उनके दायित्व के प्रति जागरूक कराया जाता है।
केशांत यानी कि केश या बालों का अंत करना। बता दें कि विद्या अध्ययन से पूर्व भी केशांत यानी मुंडन किया जाता है। शास्त्रों के अनुसार शिक्षा प्राप्ति के पहले शुद्धि जरूरी है ताकि मस्तिष्क ठीक दिशा में काम करे।
शिक्षा पूरी कर लेने के बाद गुरुकुल से विदाई लेने से पूर्व शिष्य का समावर्तन संस्कार होता था। इस संस्कार में वेदमंत्रों से अभिमंत्रित जल से भरे हुए 8 कलशों से विधिपूर्वक ब्रह्मचारी को स्नान करवाया जाता है, इसलिए इसे वेद स्नान संस्कार भी कहते हैं।
एक सही उम्र में प्रवेश करने के बाद विवाह करना जरूरी है। सनातन धर्म में विवाह को जन्म-जन्मांतर का बंधन माना गया है। आपको बता दें कि विवाह संस्कार सर्वाधिक महत्वपूर्ण संस्कार माना जाता है। विवाह का अर्थ है पुरुष द्वारा स्त्री को विशेष रूप से अपने घर ले जाना। इसी संस्कार से व्यक्ति पितृऋण से भी मुक्त होता है।
जब विवाह संस्कार होता है उस दौरान होम करते वक़्त कई सारी क्रियाएं जिस अग्नि में की जाती हैं, उसे आवसथ्य नामक अग्नि कहते हैं और इसे ही विवाह अग्नि भी कहा जाता है। विवाह के बाद वर-वधू उस अग्नि को अपने घर में लाकर किसी पवित्र स्थान पर स्थापित करते हैं व प्रतिदिन अपने कुल की परंपरा के अनुसार सुबह-शाम हवन करते हैं। यह प्रक्रिया आजीवन चलनी चाहिए।
आखिर में आता है अन्त्येष्टि संस्कार। हिंदुओं में किसी की मृत्यु हो जाने पर उसके मृत शरीर को वेदोक्त रीति से चिता में जलाने की प्रक्रिया को अन्त्येष्टि क्रिया अथवा अन्त्येष्टि संस्कार कहा जाता है। हिंदू मान्यता के अनुसार यह सोलह संस्कारों में से एक संस्कार है।
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