Sai Baba ki Kahani: भारत में अनेकों धर्म हैं जिनमें हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध, पारसी, जैन मुख्य रूप से हैं और इन समुदायों के लोग अपने-अपने ईष्टदेवों को ही मानते हैं लेकिन इस दुनिया में एक ऐसे सिद्ध पुरुष ने भी जन्म लिया था जिन्होंने किसी भी धर्म में कोई भेदभाव नहीं रखा। उनका नाम Sai Baba था जिन्हें चमत्कारिक पुरुष भी कहते हैं, और ऐसा माना जाता है कि साईं बाबा हर धर्म के अंशों से जन्में थे इसलिए वे हर धर्म को उच्च मानते थे। यही कारण है कि साईं बाबा को हर धर्म और जाति के लोग पूजते हैं और उनके बारे में हर छोटी बातें जानना चाहते हैं।
जिस तरह पर्वतों में हिमालय को सर्वश्रेष्ठ माना जाता है बिल्कुल वैसे ही संतों में साईं बाबा का नाम सबसे उच्च माना जाता है। साईं के नाम के आगे ‘थे’ लगाना उचित नहीं माना जाता क्योंकि विद्वानों के मुताबिक आज भी साईं बाबा हमारे बीच हैं बस वे नजर उन्हें ही आते हैं जिनकी आत्मा शुद्ध और पवित्र होती है। साईं बाबा के बारे में एक भ्रम रहा है कि वे हिंदू थे या मुस्लिम क्या वे कबीर, नामदेव, पांडुरंग के अवतार थे। तो कुछ लोग ये भी कहते हैं कि वे शिव के अंश थे और कुछ को उनमें दत्तात्रेय का अंश दिखता है। मगर असल में वे एक भारतीय आध्यात्मिक गुरु रहे हैं जिन्हें भक्त एक संत, एक फकीर, एक संतगुरु और भगवान का अवतार ही समझते हैं। उनके बारे में कुछ अनसुनी बातें यहां हम आपको बताएंगे।
साईं बाबा का जन्म शिरडी में हुआ मगर इनका जन्म किसके घर हुआ इसमें अभी मतभेद है फिर भी ऐसा बताया जाता है कि ब्राहम्ण जोड़े के यहां पथरी गांव में जन्में साईं बाबा को फकीर को सौंप दिया गया था। ये उनके आखिरी दिनों में उन्हीं के द्वारा बताए गए शब्द हैं। उनकी जन्म की तारीख तय नहीं है और पहली बार बाबा 16वें साल में वे महाराष्ट्र के शिरडी गांव पहुंचे थे। लोग उन्हें देखकर हैरान रह गए थे क्योकि एक लड़का जिसकी उम्र बहुत कम है वो नीम के पेड़ के नीचे आसन बिछाए ध्यान लगा रहा है। बिना खाए-पिए इन्होने कई दिन ऐसे ही व्यतीत कर दिए और इसके बाद लोग इस युवा पर बहुत आस्था रखने लगे। गांव के प्रमुख की पत्नी बयाजाबाई ने बचपन में साईं बाबा के कल्याण के बारे में पूछताछ की और धीरे-धीरे बाबा के लिए वे खाना भी लाया करती थीं।
कुछ लोगों का ये भी कहना है कि साईं का जन्म 28 सितंबर, 1835 को महाराष्ट्र के पथरी गांव में हुआ लेकिन इनके माता-पिता और बचपन की कोई जानकारी नहीं है। उनके बारे में साईं सत्यचरित्र किताब में ऐसा लिखा है। शिरडी के उस नीम के पेड़ के नीचे इन्होंने कई बरसात, सर्दी, गर्मी बिता दिए। इतनी कठोर तपस्या करने के बाद गांववालों ने इनपर ध्यान देना शुरु किया और इनके पास आकर बैठने लगे तो वहीं कुछ लोग इन्हें पागल भी कहते थे तो कुछ इनके ऊपर पत्थर फेंकते थे। साईं बाबा एक दिन अचानक इस गांव से चले गए और फिर इनका पता नहीं चला। तीन सालों तक शिरडी में रहने के बाद वे गायब हुए और एक साल बाद फिर शिरडी लौटकर आए तो आखिरी समय तक यहीं रह गए।
साल 1858 में साईं बाबा शिरडी लौटकर आए और इस बार उन्होंने अपना वेषभूषा का अलग तरह का रखा जिसमें उन्होंने घुटनों तक एक कफनी बागा और एक कपड़े की टोपी पहने थे। उनके एक भक्त रामगिर बुआ के अनुसार वे शिरडी आए तो उन्होंने खिलाड़ी की तरह कपड़े और कमर तक लंबे बाल रखे थे जिन्हें उन्होंने नहीं कटवाए। उनके कपड़ों को देखकर सूफी संत नजर आते थे जिसे देखकर लोग उन्हें मुस्लिम फकीर समझने लगे। इसी कारण हिंदू गांव ने उन्हें नहीं स्वीकार किया। 5 सालों तक वे शिरडी के जंगलों में भटकते रहे और वे किसी से ज्यादा नहीं बोलते थे। लंबे समय तक उन्होंने तपस्या की और बाद में वे एक जर्जर मस्जिद में रहने लगे। वहां पर बैठने से लोग उन्हें भिक्षा देने लगे इससे उनका जीवनयापन होता रहा। उस मस्जिद में उन्होंने एक धुनी जलाई जिससे निकली राख को उनसे मिलने वालों को देते थे। ऐसा माना जाता है कि उस राख में चिकत्सीय शक्ति थी। वो गांववालों के लिए हकीम बन गए जो राख से ही बीमारियां दूर कर देते थे। Shirdi Sai Baba से मिलने वालों को आध्यात्मिक शिक्षा मिलती थी और उन्हें पवित्र हिंदू ग्रंथों के साथ कुरान पढ़ते भी देखा गया। जब उनसे कोई पूछता कि वे हिंदू हैं या मुस्लिम तो वो एक ही बात कहते थे ‘सबका मालिक एक’। साल 1910 के बाद साईं बाबा की प्रसिद्धि मुंबई तक फैल गई और अनेक लोग उनसे मिलने जाया करते थे क्योंकि उनके चमत्कारी तरीकों के कारण लोग उन्हें संत मानते थे।
साईं बाबा हर दिन लोगों से भिक्षा मांगने भी जाया करते थे जिसमें कहीं उन्हें तिरस्कार तो कहीं उन्हें पूजा जाता था। एक समय ऐसा आया कि सभी उनके चमत्कारों से वाकिफ हो गए और उन्हें पूजने लगे। साईं बाबा ने अपने तिरस्कार करने वालों का भी भला ही चाहा और उन्हें कभी क्रोध करते नहीं देखा गया। गांव के बच्चे उनसे शिक्षा लेने आते और उन्हें अपना सर्वश्रेष्ठ गुरु मानते थे। बाबा ने अपने पीछे ना कोई आध्यात्मिक वारिस और ना कोई अनुयायी छोड़ा और इसके अलावा उन्होंने कई लोगों के अनुरोध के बाद भी किसी को दीक्षा नहीं दी। उनके कुछ अनुयायी अपने आध्यात्मिक पहचान से प्रसिद्धि हासिल कर ली। साईं बाबा की मृत्यु 15 अक्टूबर, 1918 को शिरडी में ही हुई और उस समय उनकी उम्र 83 वर्ष थी। साईं बाबा की मृत्यु के बाद उनके भक्त उपासनी महाराज को प्रतिदिन आरती करते और शिरडी जाते रहे।
19वीं सदी में साईं की पूजा होने लगी और उनका पहला भक्त खंडोबा पुजारी म्हाल्सप्ति था और उसने ही इनका मंदिर बनवाया। शिरडी साईं बाबा के मंदिर में समय के साथ बढ़ोत्तरी होती रही और हर दिन यहां पर 2000 श्रद्धालु पहुंचने लगे। धीर-धीरे शिरडी मंदिर में साईं बाबा की प्रसिद्धि बढ़ने लगी और साल 2012 में 11.8 करोड़ के दो कीमती चीज मंदिर में चढ़ाई गई, जिसे बाद में साईं बाबा ट्रस्ट के लोगों ने बताया था। अब शिरडी साईं बाबा का मंदिर पूरी दुनिया में प्रसिद्ध है। जब साईं जिंदा थे तब उन्होंने कुछ इस तरह के चमत्कार किए थे-
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