इस दुनिया में अपनी जिंदगी की परवाह हर कोई करता है, लेकिन बहुत कम लोग ही ऐसे होते हैं जो दूसरों की जिंदगी की भी उतनी ही अहमियत समझते हैं, जितनी कि अपनी जिंदगी का वे ख्याल रखते हैं। दूसरों की जिंदगी बचाने के लिए वे अपनी जान तक जोखिम में डाल देते हैं। इनमें से बहुत से लोग तो ऐसे भी होते हैं, जो दूसरों की जान बचाने के बाद गुमनामी के अंधेरे में खो जाते हैं। ऐसे ही लोगों में से एक का नाम है संजय महाली। संजय दूसरों की जान बचाते हैं। जी हां, जो लोग खदानों में, मलबों में, सुरंगों में और इमारतों आदि में फंस जाते हैं, वहां वे उनके लिए देवदूत बनकर पहुंचते हैं और जान पर खेलकर उनकी जान बचाते हैं।
संजय के मुताबिक उन्होंने अपना सबसे पहला रेस्क्यू ऑपरेशन वर्ष 2016 में किया था। उन्हें यह जानकारी मिली कि जामुल की एक सीमेंट फैक्ट्री में एक लिफ्ट 78 मीटर की ऊंचाई पर फंस गई है। उसमें करीब 11 मजदूर फंसे हुए हैं। पता चला कि एक घंटा से अधिक का वक्त बीत चुका है। वे वहां पहुंचे तो नीचे खड़े मजदूरों में काफी गुस्सा था। संजय के अनुसार वे लोग 4-5 साथी थे। वे इन्हें बचाने की योजना बना रहे थे, क्योंकि 1-1 फ्लोर के बीच में बहुत लंबा गैप था। इसमें कूदना एक तरीके से अपनी जान गंवाने के समान था। संजय के मुताबिक वे जो भी योजना बना रहे थे, वहां खड़े लोग उसमें कोई-न-कोई खामी निकाल ही देते थे। ऐसे में उन्होंने उनकी बातों को सुनना बंद कर दिया और अपनी योजना, बनाई ताकि दम घुटने की वजह से किसी की भी मौत ना हो जाए।
बचपन से ही खतरों से खेलने का संजय को शौक रहा था। बाद में इसकी जानकारी अच्छी तरह से ली तो पता चला कि इसके लिए पढ़ाई और ट्रेनिंग करनी पड़ेगी। उन्होंने वैसा ही किया। इसके बाद इस क्षेत्र में वे कूद पड़े। उन्होंने रेस्क्यू वर्कर के तौर पर लोगों की जान बचाने का काम शुरू कर दिया। वे कहते हैं कि यह करियर से भी कुछ ज्यादा है, क्योंकि हर महीने मिलने वाली सैलरी के लिए कोई केवल अपनी जान को जोखिम में नहीं डालना चाहेगा। इस काम को वे व्यक्तिगत रुचि लेकर करते हैं, क्योंकि वे दूसरों की जिंदगी का भी मोल समझते हैं।
संजय के मुताबिक जब वे लोगों की जान बचाने के लिए सुरंग में उतरते हैं तो दम घुटने का खतरा रहता है। खदानों में मिट्टी के भसकने का खतरा रहता है। वहीं, मलबे में भी खुद के दब जाने का खतरा मौजूद रहता है। संजय के अनुसार इन सबके बीच जान बचाने के लिए केवल एक रस्सी होती है। यह किसी लाइफलाइन से कम नहीं है। साथ में हेलमेट होता है और कुछ उपकरण होते हैं। हालांकि, इस दौरान सबसे पहले उनकी कोशिश खुद की जान बचाने की होती है। वह इसलिए कि यदि खुद की जान बची रहेगी, तभी दूसरों की जान भी बचा पाएंगे।
अपने इस काम के दौरान संजय ने कई बार लोगों का गुस्सा भी भड़कते हुए देखा है। संजय बताते हैं कि एक बार जब वे एक खदान में फंसे लोगों को बचाने के लिए पहुंचे थे तो वहां अंदर चारों ओर घना अंधेरा था। लाइट कटी हुई थी। मामूली टॉर्च से काम चलाना था। बाहर जो लोग खड़े थे, वे बहुत ही भड़के हुए थे। संजय के अनुसार इस वक्त बहुत ही होशियारी से काम लेना होता है। यदि उन लोगों के साथ लड़ने लगेंगे, उनसे मारपीट करने लगेंगे तो मार दिए जाएंगे। ऐसे में दूसरों की जिंदगी बचाने का तो फिर कोई सवाल ही नहीं है। संजय का कहना है कि ऐसी परिस्थितियों में केवल शारीरिक ही नहीं, बल्कि मानसिक मजबूती की भी आवश्यकता होती है।
करीब पांच साल हो गए हैं। संजय इस काम में लगे हुए हैं। उनका बैग हमेशा पैक रहता है। पता नहीं कब कहां जाना पड़े। काम खतरों से भरा हुआ है। ऐसे में संजय के मुताबिक बड़ी ही सूझबूझ से काम लेना पड़ता है। अकेले कुछ नहीं हो सकता। टीम वर्क होता है। आपस में तालमेल बढ़िया रखना पड़ता है। थोड़ी सी भी गलतफहमी हो जाए तो जान जाने का खतरा बना रहता है। इस तरह से संजय महाली जिसे ठीक से जानते तक नहीं, उनकी जान बचाने के लिए अपनी जान की बाजी तक लगा देते हैं।
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