शिक्षक एक उपहार है जो बिना स्वार्थ व भेद भाव के हर शिष्य को अच्छी शिक्षा देता है। शिक्षक हमारे लिए हमेशा ही पूजनीय है। शिष्य के लिए उसके शिक्षक की बात पत्थर की लकीर होती है, शिक्षक का काम अपने विद्यार्थी का जीवन बनाना होता है।
इतिहास साक्षी है कि सफल व्यक्ति के पीछे गुरु का हाथ होता है। ऐसे काफी उदाहरण हैं जो यह बात सिद्ध करते हैं और गुरु की महिमा का गुणगान करते हैं। गुरु वही है, जो बच्चों को उनके व्यक्तित्व से परिचित कराये। उनके अवगुणों को दूर करे और गुणों से अवगत कराये, प्रोत्साहित कर उनका मार्गदर्शन करे। शिष्य जीवन के अनेक रंग अपने शिक्षक को देख व सुन कर सीखता है। शिक्षक के योगदान से ही एक शिष्य समाज में रहने योग्य बनता है। जैसे एक डॉक्टर मरीज को ठीक करने का हर प्रयास करता है, उसी प्रकार एक शिक्षक अपने विद्यार्थी को सही राह दिखाता है। हर परिस्थिति का सामना करने के लिए तैयार करता है। इसलिए शिक्षक को ईश्वर के समान माना जाता है।
पुराने समय में शिक्षा व्यवसाय नहीं था परंतु आज लोग इसे व्यवसाय के रूप में अपना रहे है । यहां तक कि शिक्षा के व्यापारी शिक्षकों द्वारा विद्यार्थी पर दवाब डलवाते हैं कि उनको उनके उपयोग की वस्तुएं कहां से लेनी है और यदि ऐसा ना किया जाए तो विद्यार्थी को उपेक्षा का सामना करना पड़ता है। शिक्षक कभी नहीं चाहता कि उसके विद्यार्थी को प्रताड़ना या उपेक्षा सहनी पड़े, परंतु शिक्षा के व्यापारियों के कारण उसको ऐसा करना ही पड़ता है। शिक्षा का व्यवसायीकरण देश के लिए चुनौती है।
ज्ञान की बात हो या योग्यता की या फिर बेहतर इंसान होने की, इन सभी मामलों में शिक्षक हमारे जीवन में बेहद महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। लेकिन ज्ञान के साथ-साथ कुछ और भी योग्यताएं हैं जो एक शिक्षक को अपने आप में बेहतरीन और स्टूडेंट्स का पसंदीदा बनाती हैं।
आज शिक्षक दिवस पर हम उन्हीं शिक्षकों को याद करते है, जो हमें परीक्षाओं में अच्छे अंक देते हैं। इस सोच को बदलने की जरूरत है। शिक्षक दिवस ही शिक्षक का असली सम्मान नहीं है असली सम्मान तब होता है जब हम उसका पढ़ाया हुआ सार्वजनिक जीवन मैं ग्रहण करें। यही एक शिक्षक की वास्तविक कमाई होती है। शिक्षक अपने विद्यार्थियों का मित्र बनकर उनके जीवन को अपनी देख रेख में सर्वागण विकास की ओर बढ़ाता है।
कुछ प्रश्न आपके मन में भी उठते होंगे क्या शिक्षक मात्र किताबों में प्रकाशित विषयवस्तु को समझाने का माध्यम है? विद्यार्थियों के मौलिक चिंतन, प्रश्नों व रचनात्मक सोच का, क्या इस शिक्षा पद्धति में कोई स्थान नहीं?
यह हमारी शिक्षा प्रणाली की यह विडंबना है की पुस्तकों में छपा हुआ ही ब्रह्मसत्य माना जाता है चाहे वह कितना ही अप्रासंगिक हो। शिक्षकों को कक्षा में उसे ही पढ़ा देना है और विद्यार्थियों को वही सीखना है, और जाने-अनजाने प्रतिस्पर्धा में शामिल हो जाना है, जो अंको पर आधारित है।
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