Garbhadhan Sanskar: जानें पूरी विधि हमारी भारतीय संस्कृति में प्राचीन समय से ही मनुष्य के सोलह संस्कारों का वर्णन किया गया है। हिंदू धर्म को ही सनातन या आर्य धर्म कहा जाता है। महर्षि वेदव्यास के अनुसार मनुष्य के जन्म से लेकर मृत्यु तक पवित्र सोलह संस्कार संपन्न किए जाते हैं। वैसे तो पहले से लेकर सोलहवें संस्कार सभी मनुष्य के जीवन का बहुत ही ज्यादा महत्वपूर्ण हिस्सा हैं और इसे आप ऐसा भी कह सकते हैं कि इसके बिना मनुष्य का जीवन भी एक तरह से अधूरा है। जन्म से लेकर शिक्षा दीक्षा आदि तक समय- समय पर अलग-अलग संस्कारों की आवश्यकता पड़ती है। हर कोई चाहता है कि उसके घर में उत्तम संतान का जन्म हो और उनकी यह इच्छा भी होती है उसकी संतान उत्तम गुणयुक्त, संस्कारी, बलवान, आरोग्यवान एवं दीर्घायु हो।
मगर आज के इस आधुनिकरण की अंधी दौड़ व पाश्चात्य संस्कृति के प्रवाह में देखा जाए तो हमने गर्भाधान संस्कार की बुरी तरह उपेक्षा की है। आपको बता दें कि वर्तमान समय में गर्भाधान को एक संस्कार की तरह करना तकरीबन हर कोई
भूल ही गया है, जिसके गंभीर दुष्परिणाम समय-समय पर सामने आते रहते हैं। जानकारी के लिए बता दें कि बिना उचित रीति-रिवाज और शुभ मुहूर्त के गर्भाधान करना निकृष्ट व रोगी संतान के जन्म का कारण बनता है। एक स्वस्थ, आज्ञाकारी,
चरित्रवान संतान ईश्वर के वरदान के सदृश होती है किंतु इस प्रकार की संतान तभी उत्पन्न हो सकती है, जब गर्भाधान उचित रीति व शास्त्रों के बताए नियमानुसार किया जाए। संतान को उत्तम बनाने के लिए उसके जन्म के बाद ध्यान देने से
ज्यादा जरूरी है जन्म से पहले से ही आयोजन करना।
गर्भाधान संस्कार के विषय में महर्षि चरक ने कहा है कि मन का प्रसन्न होना गर्भधारण के लिए बेहद ही आवश्यक माना जाता है। यही वजह है कि ना सिर्फ प्राचीन समय में बल्कि आज के इस आधुनिक युग में भी बताया जाता है कि स्त्री एवं पुरुष को हमेशा प्रसन्न रहना चाहिए और मन को प्रसन्न करने वाले वातावरण में रहना चाहिए। गर्भ की उत्पत्ति के समय स्त्री और पुरुष का मन जिस प्राणी की ओर आकृष्ट होता है, वैसी ही संतान उत्पन्न होती है इसलिए जैसी संतान हम चाहते हैं वैसी ही तस्वीर सोने के कमरे की दीवार पर लगानी चाहिए। जैसे कि राम, कृष्ण, अर्जुन, अभिमन्यु, छत्रपति शिवाजी एवं महाराणा प्रताप आदि। यहां पर एक बात काफी महत्वपूर्ण है कि गर्भाधान के लिए स्त्री की आयु सोलह वर्ष से ज्यादा तथा पुरुष की आयु पच्चीस वर्ष से ज्यादा होना सही माना गया है। बता दें कि तन और मन की स्वच्छता उनके आहार, आचार, व्यवहार आदि पर निर्भर करती है। इसके लिये माता-पिता को उचित समय पर ही समागम करना चाहिये। दोनों मानसिक तौर पर इस कर्म के लिये तैयार होने चाहिये। बताया जाता है कि यदि दोनों में से एक इसके लिये तैयार न हो तो ऐसी स्थिति में गर्भाधान के लिये प्रयास नहीं करना चाहिये।
ऐसा बताया जाता है कि अच्छी संतान प्राप्ति के लिये ऋतुकाल में ही स्त्री व पुरुष का समागम होना चाहिये। स्वभाविक रूप से स्त्रियों में ऋतुकाल रजो-दर्शन के 16 दिनों तक माना जाता है। इनमें शुरूआती चार-पांच दिनों तक तो पुरुष व स्त्री को बिल्कुल भी समागम नहीं करना चाहिये। ऐसा इसलिए क्योंकि इस अवस्था में समागम करने से गंभीर बीमारियां पैदा हो सकती हैं। धार्मिक रूप से ग्यारहवें और तेरहवें दिन भी गर्भाधान नहीं करना चाहिये इसके अलावा अन्य दिनों में आप गर्भाधान संस्कार कर सकते हैं। अष्टमी, चतुर्दशी, पूर्णमासी, अमावस्या आदि पर्व रात्रियों में स्त्री को समागम से बचने की सलाह दी जाती है। रजो-दर्शन से पांचवी, छठी, सातवीं, आठवीं, नौंवी, दसवीं, बारहवीं, चौदहवीं, पंद्रहवीं और सोलहवीं रात्रि में गर्भाधान संस्कार किया जा सकता है।
यहां पर आपकी जानकारी के लिए बता दें कि स्त्रियों के मासिक धर्म प्रारम्भ से 16 रात्रि तक ऋतुकाल कहा गया है और इसकी प्रारंभिक चार रात्रि गर्भाधान के लिए त्याज्य मानी गई हैं। इसके बाद की 12 रात्रियां गर्भधारण करने के लिए उपयुक्त मानी गई हैं। पूरे ऋतुकाल में गर्भस्थापन होने तक घी का सेवन करें और घी को खीर अथवा भात में मिलाकर खाएं। दो ऋतुकाल में भी गर्भधारण नहीं होने पर पुष्य नक्षत्र में जिस गाय को पहला बच्चा हुआ हो ऐसी गाय के दूध का दही जमाकर उसमें जौ के दानों को सेंक व पीस कर मिला दें और फिर उसका सेवन करें। इसके अलावा आपको यह भी बताते चलें कि दिन के समय गर्भाधान संस्कार वर्जित माना जाता है। मान्यता है कि इससे दुराचारी संतान पैदा होती है। श्राद्ध के दिनों में, धार्मिक पर्वों में व प्रदोष काल में भी गर्भाधान शास्त्रसम्मत नहीं माना जाता।
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