Eyam Village Lockdown: ऐसा कहा जाता है कि इतिहास खुद को दोहराता है और यह काफी हद तक सही भी है। आज जिस तरह से पूरी दुनिया के अधिकतर देशोंं में कोरोना महामारी के चलते लॉकडाउन है और लोग अपने घरों में बंद हैंष ठीक आज से 350 साल पहले भी एक गांव में भी लॉकडाउन हुआ था। उस वक्त भी लोग अपने-अपने घरों में क्वारंटाइन थे। आइए जानते हैं यह सालों पुराना किस्सा
मान्यता है कि 1665-66 के दौरान इंग्लैंड के एक गांव में प्लेग नामक महामारी का जन्म हुआ था। इस महामारी की वजह से हज़ारों लोगों की जान चली गई थी। हांलाकि, लंदन से थोड़ी ही दूरी पर बसा एयम नामक गांव में इस बीमारी का एक भी केस नहीं था। ऐसा इसलिए, क्योंकि इस महामारी की शुरूआत में फैलते ही गांव के लोगों ने खुद को घरों में लॉकडाउन कर लिया था। उस दौरान अलेक्ज़ेंडर हैंडफील्ड नामक एक दर्जी लंदन कपड़ों का थान लेने के लिए जा पहुंचा। उसको ज़रा भी अंदाज़ा नहीं था कि वो जो थान खरीद रहा है उससे प्लेग फैल सकता था।
दर्जी हैंडफील्ड जैसे ही अपने गांव वापस पहुंचा तो उसने अपने साथ काम करने वाले साथी को बंडल खोलने को कहा। उसके साथी जॉर्ज की मृत्यू हो गई और सप्ताह भर में ही गांव के लोग प्लेग से संक्रमित हो गए। इस तरह से बीमारी ने पूरे गांव पर कब्ज़ा कर लिया और एक के बाद एक लोग इसकी चपेट में आते चले गए। 1665 में सितंबर से दिसंबर के बीच करीब 42 गांव वालों की मौत हो गई। इस बीमारी से और लोग संक्रमित न हो जाए इसीलिए गांव वालों ने बीमारी के खतरे को देखते हुए घरों में बंद रहने का फैसला लिया। फिर गांव वाले इस महामारी के लिए सहायता मांगने रेक्टर विलियम मोम्पेसन और निष्कासित पूर्व रेक्टर थॉमस स्टेनली के पास पहुंचे और उन्होंने उनको लॉकडाउन होने की सलाह दी।
थॉमस स्टेनली की सलाह मानते हुए कुछ गांव वालों ने खुद को घरों में बंद कर लिया। इसके बाद 24 जून 1666 को बाहर के लोगों के लिए सब रास्ते बंद करके वहां एक दीवार बना दी गई। इसे वर्तमान में लोग ‘मोम्पेस्सन वेल’ के नाम से जानते हैं। इस दीवार में एक छेद भी किया गया ताकि ज़रूरत के समय गांव वाले सिक्के या कुछ सामान फेंक कर मदद मांग सकें। इतना सब करने के बावजूद में गांव में लोगों की मौतों का सिलसिला थमा नहीं। प्रतिदिन करीब 6 से 7 लोगों की मृत्यू हो जाती थी।
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प्लेग महामारी के कारण गांव में मरने वालों की लाशों का ढेर लग गया। पर इससे गांव वालों का साहस कमज़ोर नहीं पड़ा और वो इस महामारी से लड़ते रहे। अपने घर में लॉकडाउन होकर रहे। देखते ही देखते इस संक्रमण ने अपने पैर पसारने कम कर दिए और ये नवंबर तक यह बीमारी छूमंतर हो गई।
ऐसा माना जाता है कि इस महामारी का खौफ इतना था कि इसके खत्म हो जाने पर भी गांव वाले क्वारंटाइन होकर ही रहे। कुछ सालों बाद लोगों ने घर से बाहर निकलकर सामान्य जीवन जीना शुरू किया। फिर देखते ही देखते गांव वालों ने एक एक करके यह गांव खाली कर दिया और आज ये गांव एक बेहद प्रसिद्ध प्रर्यटन स्थल बन चुका है।
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