Mohit Ahuja Photographer: मोहित आहूजा (Mohit Ahuja) एक ऐसे शख्स हैं, जिन्होंने बहुत से नेत्रहीनों और दिमाग से कमजोर बच्चों की जिंदगी में एक कमाल का बदलाव लाया है। उनकी हुनर को निखारने का उन्होंने अनोखा तरीका अपनाया है और इसके लिए उन्होंने अपनी नौकरी तक छोड़ दी। कहते हैं न कि जब आप कोई अच्छा काम करें तो कठिनाइयां तो शुरुआत में बहुत आती हैं, मगर यही कठिनाइयां धीरे-धीरे आपके लिए ऐसा रास्ता तैयार कर देती हैं, जिन पर चलकर ही आप अपनी मंजिल को छू पाते हैं। बिल्कुल ऐसा ही मोहित के साथ भी हुआ।
दीदी बन गईं प्रेरणा
दरअसल, मोहित की दीदी मॉन्सटर सिंड्रोम नामक बीमारी से पीड़ित हैं। इसमें मरीज का चेहरा बाकी लोगों की तुलना में कुछ अलग दिखता है। इस तरह से वे स्पेशली-एबल्ड हैं। मोहित बताते हैं कि उनके इलाज के सिलसिले में एम्स का अक्सर चक्कर काटना पड़ता था और इस तरह से सिर्फ दीदी ही नहीं, बल्कि पूरा परिवार ही एक तरह से स्पेशली-एबल्ड हो गया था। मोहित के मुताबिक अपनी दीदी की वजह से ही वे इंसान बने और आज जो काम वे कर रहे हैं, दीदी के बिना वह संभव नहीं हो पाता।
स्पेशली-एबल्ड को लेकर सोच ( Mohit Ahuja Photographer)
स्पेशली-एबल्ड को लेकर मोहित का मानना है कि यह एक तरह से आज के वक्त में फैशनेबल शब्द बन गया है। सोशल मीडिया पर इसे लेकर लोग बातें तो इतनी भारी-भरकम करते हैं जैसे कि दुनिया स्पेशली-एबल्ड लोगों के प्रति दयालुता से भर गई है, मगर असल जिंदगी में स्पेशली-एबल्ड की क्या स्थिति है, यह किसी से छुपा नहीं है। मोहित कहते हैं कि स्पेशली-एबल्ड बच्चों के प्रति समाज की यही मानसिकता है कि ये बच्चे मानसिक रूप से ‘कमजोर’ हैं। किसी तरह से इन्होंने 10वीं या 12वीं भी पास कर ली तो लोग समझते हैं कि चलो इन्होंने बहुत कुछ कर लिया।
मिला वर्कशॉप लगाने का मौका
मोहित के अनुसार अधिकतर NGOs स्पेशली-एबल्ड बच्चों को ज्यादा-से-ज्यादा लिफाफे या दीये बनाना या फिर मोमबत्तियां बनाना सिखाते हैं, मगर मैंने उन्हें फोटोग्राफी सिखाने का सोचा। पीठ तो मेरी बहुत से लोगों ने इस आइडिया के लिए थपथपाई, पर असल में साथ कोई नहीं आया। मोहित कहते हैं कि दीदी को देखकर उन्होंने बड़ी नजदीक से डिसएबिलिटी को समझा। इसे लेकर लोगों की सोच बदलने के इरादे से उन्होंने अपनी नौकरी को भी लात मार दी। एक एनजीओ में आखिरकार उनकी बात बनी और स्पेशली-एबल्ड बच्चों के लिए 10 दिनों का वर्कशॉप लगाने का मौका मिल गया। करीब 15 बच्चे थे, जिन्होंने कभी कैमरा देखा तक नहीं था।
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वाकई स्पेशल बच्चे
मोहित ने 10 दिनों के बाद महसूस किया कि बच्चे वाकई स्पेशल हैं। आगे काम करने का फैसला किया तो सबने यही कहा कि फोटोग्राफी जैसा बारीक काम सीख पाना इन बच्चों के बस की बात नहीं। अभिभावकों की सोच बदलने की उन्होंने ठान ली। शुरुआत में केवल 6 बच्चे ही आए, मगर मोहित ने हार नहीं मानी। मोहित बताते हैं कि एक बच्चे द्वारा ली गई फोटो में तो इतनी शार्पनेस होती है कि अच्छे-अच्छे फोटोग्राफर भी ऐसी तस्वीर न ले पाएं। यहां तक कि वे भी इस बच्चे जैसी तस्वीर नहीं निकाल पा रहे हैं। मां-बाप से इन बच्चों के हाथों में 30 हजार का कैमरा दिलवाने में वक्त लगा, क्योंकि उनकी सोच थी कि कैमरा टूट जायेगा।
अब तो बिकती हैं तस्वीरें
अब मोहित की कोशिशों का ये कारवां चल पड़ा। पहली एग्जीबिशन इन बच्चों द्वारा निकाली गई तस्वीरों की इन्होंने लगाई। फिर दूसरी, तीसरी और चौथी एग्जीबिशन भी लगा दी। अब पांचवें पर काम चल रहा है। मोहित कहते हैं कि इन तस्वीरों को देखकर किसी को जरा भी एहसास नहीं हो रहा था कि ये तस्वीरें उन बच्चों ने निकाली हैं, जिनके पास या तो आंखें नहीं हैं या फिर जिनके दिमाग को ‘कमजोर’ कहा जाता है। आज मोहित के प्रयासों की वजह से डाउन सिंड्रोम से लेकर डिस्लेक्सिया तक से पीड़ित बच्चे फोटोग्राफी सीखाकर अपनी तस्वीरों को बेच पा रहे हैं।