यमनोत्री उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले में समुद्र तल से 3,291m की उचाई पर स्थित है। यह भारत की राजधानी दिल्ली से 418 की मी दूर है । यमनोत्री धाम यमुना देवी का मंदिर है यहां पर यमुना देवी की काले रंग की मूर्ति है साथ में यम का भी मंदिर है। इस मंदिर के कपाट मई से नवम्बर तक के लिए खुलते है। कपाट अक्षय तृतीय को खुलते है और दीपावली के दूसरे दिन बंद हो जाते है। यमनोत्री धाम हिन्दुओ के चार धामों में से एक है । यमनोत्री धाम चार धाम यात्रा का पहला धाम अर्थात यात्री अपनी यात्रा यहां से शुरू करते है । यमुना भारत की प्रमुख नदियों में से एक मानी जाती है । यमुना नदी वास्तव में एक जमी हुई बर्फ की झील और हिमनंद (चंपासर ग्लेशियर) से आ रही है । यमुना नदी इस स्थान से सारे देश में बहती है व यह तीन बहनो का हिस्सा है जिसमे – गंगा, सरस्वती और यमुना आती है । यमुना देवी का मंदिर हनुमान चट्टी से 13 की मी और जनक चट्टी से 6 की मी दूर है और वास्तविक मंदिर पहुंचने के लिए यहां से पैदल या फिर घोड़े से जाना पड़ता है ।
मंदिर की स्थापना
1919 में इस मंदिर का निर्माण टिहरी गढ़वाल के राजा प्रताप शाह ने करवाया था। परन्तु 19वी में भयंकर भूकंप के कारण यह मंदिर पूरा तहस नहस हो गया फिर तभी जयपुर की महारानी गुलेरिआ ने इसका पुन: निर्माण कराया।
पौराणिक इतिहास
यमनोत्री धाम के बारे में वेद पुराणों में भी लिखा है। यमुना देवी को सूर्य देव की पुत्री और यम की बहन बताया गया है । कहते है की यमुना जब पृथ्वी पर आयी तो उसने अपने भाई को छाया के अभिशाप से मुक्त कराने के लिए घोरतपस्या की और उन्हें अभिशाप से मुक्त करा दिया । यमुना की तपस्या देख यम बहुत खुश हुए और यमुना देवी को वरदान दिया, इतना कहने पर यमुना देवी ने अपने भाई यम से वरदान में स्वव्छ नदी ताकि धरती पर किसी को पानी पिने में कोई परेशानी न हो और न ही पानी पिने से किसी को कोई भी हानि जैसे की शारीरिक रोग या मृत्यु का नुक्सान ना हो और वह जल प्रदान करे जिससे मोक्ष की प्राप्ति हो । ऐसा कहा गया है की जो यमुना नदी में स्नान करता है वो अकाल मृत्यु से बच जाता है और मोक्ष को प्राप्त होता है ।
जैसे की एक और कहानी बताई जाती है की यहां पर एक असित मुनि नाम के ऋषि ने अपनी कुटिया बनायीं थी वह हर रोज़ गंगा और यमुना में स्नान करते थे जब उनके आखरी दिन चल रहे थे तब वह इस हालत में नहीं थे की वो गंगा नदी तक जा कर स्नान करले तब गंगा नदी उनकी अपार श्रद्धा देख कर खुद उनकी कुटिया से ही उत्पन हो गयी थी ताकि असित मुनि अपने रीती रिवाज़ो को जारी रख सके ।