इस दुनिया में बहुत से ऐसे लोग हैं, जिनकी जिंदगी बड़ी कठिनाइयों में आगे बढ़ती है, मगर इनमें से बहुत कम ही ऐसे लोग होते हैं, जो इन कठिनाइयों के बीच भी अपने इरादों को कभी टूटने नहीं देते हैं और जिंदगी में आगे चलकर कुछ ऐसा करते हैं, जिसकी वजह से ना केवल उनकी जिंदगी संवर जाती है, बल्कि वे दूसरे बहुत से लोगों की भी जिंदगी बना देते हैं। नागालैंड के दीमापुर के रहने वाले सुबोनेंबा लोंगकुमेर ने भी कुछ ऐसा ही किया है।
वो दर्दनाक बचपन
महज 12 वर्ष की उम्र में सुबोनेंबा अपने माता-पिता को खो चुके थे। वे चार भाई-बहन थे। ऐसे में इन चारों भाई बहनों की जिम्मेदारी रिश्तेदारों ने अलग अलग ले ली। चारों के अलग रहने की नौबत इस वजह से आ गई। सुबोनेंबा बताते हैं कि उनके अंकल ने उन्हें अपने यहां तो रख लिया। उन्हें खाना दिया। पहनने के लिए कपड़े दिए, लेकिन उनके साथ उनके किसी भी भाई-बहन को शिक्षा नहीं मिली। सुबोनेंबा के अंकल चाहते थे कि वे उनके छोटे से होटल में काम करके कमाई करें।
कुछ करने की चाह
हालांकि इस दौरान उनकी किस्मत ने उनका साथ दिया और उनके पिता के एक दोस्त ने उनके और बड़े भाई की शिक्षा की जिम्मेवारी संभाल ली। सुबोनेंबा ने पढ़ाई के साथ साथ होटल में छोटे-मोटे काम करना भी जारी रखा। वर्ष 2000 में कॉलेज से ग्रेजुएट होने के बाद सुबोनेंबा ने ठान लिया था कि अब वे होटल में काम नहीं करेंगे। बड़े भाई के पुलिस फोर्स में जाने के बाद उनसे सुबोनेंबा को आगे की पढ़ाई करने के लिए मदद मिल गई। सुबोनेंबा ने वर्ल्ड विजन इंडिया एनजीओ के एक प्रोजेक्ट में काम करने के लिए आवेदन किया, लेकिन कोई वैकेंसी ना होने पर उन्होंने यहीं पर 2000 रुपये प्रति माह की सैलरी पर एक ड्राइवर के तौर पर काम करना शुरू कर दिया।
स्कूल के प्रति समर्पण
बाद में एनजीओ की ओर से ग्रेस कॉलोनी में एक स्कूल खोला गया तो यहां पर सुबोनेंबा ने पढ़ाना भी शुरू कर दिया। धीरे-धीरे इस स्कूल की जिम्मेवारी सुबोनेंबा ने अपने कंधों पर ले ली। स्कूल के पास आधारभूत सुविधाएं तो थीं, पर रजिस्ट्रेशन नहीं होने की वजह से फंडिंग नहीं मिल पा रही थी। कई महीनों तक तो टीचर्स को सैलरी भी नहीं मिल पाई थी। ऐसे में अपनी सेकेंड हैंड कार को एक लाख 47 हजार रुपये में सुबोनेंबा ने बेच दिया था और इससे ही शिक्षकों को उनकी सैलरी दे दी। सुबोनेंबा के मुताबिक 2008 की जनवरी में उन्होंने शिक्षकों को स्कूल आने से मना कर दिया था, क्योंकि उनके पास उन्हें देने के लिए पैसे नहीं थे, किंतु ये शिक्षक लौट आए थे और बिना पैसे के भी पढ़ाने की उन्होंने प्रतिबद्धता जताई थी।
चल पड़ा कारवां
इस तरह से उन्होंने कम्युनिटी एजुकेशनल सेंटर सोसाइटी की शुरुआत कर दी, जिसका नाम उन्होंने सुबोनेंबा रखा। अमेरिका में रहने वाली एक दोस्त से उन्हें कुछ आर्थिक मदद मिल गई। वर्तमान में इस सोसाइटी के तहत दीमापुर में एक स्कूल के साथ, तुली में एक रेजिडेंशियल स्कूल और 15 इनफॉरमल एजुकेशन सेंटर का संचालन पूरे राज्य में किया जा रहा है। एक मोबाइल मेडिकल यूनिट भी गांव-गांव में घूमती है। केंद्र सरकार के चाइल्ड लाइन 1098 प्रोजेक्ट को लागू करने के लिए यह नोडल संगठन भी बन गया है।
अपने इसी एजुकेशनल सेंटर सोसाइटी के माध्यम से सुबोनेंबा ने बाल मजदूरी के खिलाफ भी अभियान चलाकर लोगों को इसके प्रति जागरूक करना शुरू कर दिया है। सरकार के कई छोटे-मोटे प्रोजेक्ट के संबंध में सेमिनार और वर्कशॉप आदि का आयोजन करके स्कूलों-कॉलेजों में उन्होंने बच्चों को उनके अधिकारों के प्रति जागरूक करने का काम किया है। इनके दीमापुर के स्कूल में पश्चिम बंगाल और असम से दिहाड़ी मजदूरी करने के लिए आए बच्चे तो अब पढ़ ही रहे हैं, साथ ही नागा बच्चे भी आने लगे हैं।
खिलखिला उठी जिंदगी
स्कूल की ओर से आज करीब 580 बच्चों को अच्छी शिक्षा मिल रही है। साथ ही नियमित रूप से मध्यान भोजन भी मिल रहा है। रेजिडेंशियल स्कूल में 95 फ़ीसदी बच्चे आदिवासी समुदायों से नाता रखते हैं। यहां से पढ़े हुए बच्चे कई अच्छी कंपनियों में काम कर रहे हैं। कुछ को सरकारी नौकरियां भी मिल गई हैं और कुछ अच्छी यूनिवर्सिटी में पढ़ा भी रहे हैं। चाइल्ड लाइन के जरिए बच्चों को उनके परिवार से मिलाया भी जा रहा है और अनाथ बच्चों को एडॉप्शन होम में भेजकर उनका ख्याल रखा जा रहा है। इस तरह से सुबोनेंबा के प्रयासों से आज न जाने कितने ही बच्चों की खिलखिला रही है।